रात का यह चौथा पहर,
राधा के लिये ,
जैसे ज्येष्ठ- आषाढ़ की शिखर दुपहर ।
तीन पहर बीत गये काहना के हुए दीदार,
रात का यह चौथा पहर ,
राधा पर ढाता कहर।
रात का यह चौथा पहर,
रुक्मणि सोई ,
जैसे बेच शहर- बाज़ार ।
नींद गहरी मन में चैन,
सपने देखते नाचें नैन ,
यह रात का चौथा पहर,
रुक्मणि पर बिखेरता सुनहर।
रात का यह चौथा पहर,
मीरा के लिये एक बराबर,
क्या जंगल क्या शहर ।
पालने में शाम,
झुलारे देते नहीं झपकते नैन।
एक ही लोरी ,एक ही ध्यान—मेरे गिरधर गोपाल दूजा न कोई,
उसके लिये एक बराबर अमृत और ज़हर।
मदहोश, मदमस्त ,बेखबर
कब सांझ ढली, कब हुई सवेर,
जिसके लिये युगों की नहीं गिनती ,
उसके लिये क्या पहला और क्या चौथा पहर ।